आज दिन है तुम्हारा,
नाप लो आसमां,,
कल उसी क़फ़स में जाना है..।
आज़ादी!
ये लफ़्ज़ बर-अक्स है,
तुम्हारी ज़ात के ,
औऱ तुम्हे यही पाना है..??
क्या खाती हो ?
कहाँ जाती हो ?
और पहनती हो क्या ??
सब कुछ तफ़सील से तुम्हे बताना है।।।
चुप करो , ख़ामोश रहो
हक़ की बात ज़बां से निकालोगी…???
तुम लडक़ी हो..!
ख़बरदार…!
ये बात तुम्हें ज़ेहन में न लाना है..।।।।
तुम्हारा काम है,
घरदारी, ख़िदमत और
चुपचाप ज़्यादतियां सहना
अमां, हक़ की बात करे ,
लानत है..!
वो भी कोई जनाना है।
ख़ुदा ने तुम्हें जो मक़ाम दिया है,
सो दिया होगा।
पर तुम्हारे हक़ में फ़ैसला करने वाला, बस
आदमी है,
समाज है,
और हाँ! ज़माना है।
बाप की पागड़ी, माँ की परवरिश
ख़ानदान की इज़्ज़त,
सब तुम्हारे कांधों पर।
उफ़्फ़! लड़की बहुत नाज़ुक हो तुम,
मगर ये बोझ तो उठाना है।।
तुम्हारी क़ाबलियत, तुम्हारा हुनर
तुम्हारी अना-ओ-इज़्ज़त
सब हर्फे-ऐ-आख़िर हैं।।
बाकी सब कुछ पहले है ,
तुम से अव्वल है..
बस इतना ही तुम्हें समझना है।।।
रहमत, ज़ीनत, जन्नत,…अल्ला अल्ला!!!
ये किताबी बाते हैं महज़ ।।
तुम तो वो ज़िम्मेदारी हो जिसे
लाख दो लाख में निपटान है।।।
अपने घर की हो जाओ
जो चाहो फिर करती रहना !!!
और लड़की.!!
तुम्हारे बस में यही है कि
एक दहलीज़ से निकलना है,
दूसरे में जाना है….।।।
आज बेटी हो तो आरज़ू-ए-परवाज़ है तुमको
कल माँ बन के फिर
अपनी बेटी को यही सीखाना है,
के तुम अपने फ़ैसले ख़ुद नही ले सकती
तुम्हारा फ़ैसला साज़ ये ज़माना है
आज़ादी…!!
ये लफ़्ज़ बर-अक्स है
ज़ात के तुम्हारे,
और तुम्हे यही पाना है?????
~रूमी